दुमका: अपने अंदर 134 साल का इतिहास समेटे है हिजला मेला महोत्सव ! पढ़ें किसने, कब और क्यों रखी थी मेले की नींव

दुमका(DUMKA):अमूमन मेला का मतलब होता है आदमी का समूह, झारखंड में लगनेवाला कुछ मेला ऐसा है, जो अपने आप मे इतिहास समेटे रहता है,उसी में से एक नाम है दुमका में लगने वाले राजकीय जनजाति हिजला मेला महोत्सव का. इस मेला का इतिहास 134 साल पुराना है.वर्ष 1890 से ब्रिटिश कालीन भारत में मयूराक्षी नदी के तट पर हिजला मेला का आयोजन होता आ रहा है. इस वर्ष 16 फरवरी से 23 फरवरी तक मेला का आयोजन होगा.मेला को लेकर तमाम प्रशासनिक तैयारियां लगभग पूरी हो चुकी है.राजकीय जनजाति हिजला मेला महोत्सव के सफल आयोजन को लेकर गुरुवार को मेला परिसर में स्थित आदिवासियों के पूज्य स्थल दिसोम मारंग बुरु थान में संताल समाज के लोगों की ओर से पूजा अर्चना किया गया.दिसोम मारंग बुरु संताली आरीचली आर लेगचर अखड़ा के बैनर तले हिजला, धतिकबोना, हड़वाडीह, बुरुडीह आदि गांव के संताल आदिवासियों ने नायकी(पुजारी) राजेन्द्र बास्की कि अगुवागी में पूजा अर्चना सम्पन्न हुआ. नायकी ने कहा कि मेला शांतिपूर्ण हो उसके लिय सभी ग्रामीणों ने दिसोम मारंग बुरु थान में पूजा अर्चना किया.
पढ़ें मेले का इतिहास
वहीं हिजला गांव के मंझी बाब (ग्राम प्रधान) सह मेला के उदघटनकर्ता सुनिलाल हांसदा ने कहा कि यदि अंग्रेज सरकार वर्षो पूर्व इस पूज्य पेड़ सारजोम (सखुवा) को नही कटवाते तो शायद यहां मेला शुरू ही नही हुआ होता.दिशोम मंझी थान के नायकी सीताराम सोरेन ने मेला के इतिहास के बारे में बताया कि कई सौ वर्ष पहले यहां संताल आदिवासी का पूज्य पेड़ सारजोम (सखुआ) हुआ करता था. पेड़ के नीचे ग्रामीण एकत्रित होते थे और पूजा अर्चना करते थे.साथ ही गांव में जो फैसला नहीं हो पाता था उसकी सुनवाई यहां होती थी. जिसे मोड़े पिंडह बैसी (पंचायती) भी कहा जाता था.आदिवासियों के अधिक संख्या में यहां जमा होने की वजह से ब्रिटिश सरकार को विद्रोह का डर सताने लगा था.अंग्रेज सरकार को पता चला कि यही सारजोम (सखुवा) पेड़ ही इसका बहुत बड़ी वजह है.आदिवासी यहां जमा ना हो और विद्रोह नही हो, इसलिए तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने उस पूज्य पेड़ को कटवा दिया. किंवदंती है कि पेड़ काटने के बादबइस इलाके में भीषण अकाल पड़ा. इलाके में भुखमरी की स्थिति उत्पन्न होने लगी, जिससे आदिवासी ग्रामीण आक्रोशित होने लगे। इससे अंग्रेजो के विरुद्ध आंदोलन कि आग भड़कने लगी.आंदोलन को दबाने के लिये 1890 में ब्रिटिश सरकार ने यहां मेला लगवाने की परंपरा शुरू किया.आरंभ में यह हिजला (अपना कानून) के नाम से जाना जाता था.कालांतर में हिजला का अपभ्रंश हिजला हो गया.जिस पूज्य पेड़ सारजोम (सखुवा) को ब्रिटिश ने कटवा दिया था, उसका अवशेष आज फासिल्स में तब्दील हो गया है.जिसे आदिवासी दिसोम मरांग बुरु थान के नाम से जानते है और समाज के लोग उसकी पूजा करते है.
3 फरवरी सन 1890 ई. में मेले की नींव रखी गई थी
संताल परगना के तत्कालीन अंग्रेज उपायुक्त जॉन राबटर्स कास्टेयर्स के समय 3 फरवरी सन 1890 ई. में इस ऐतिहासिक मेले की नींव रखी गई थी. स्थानीय परंपरा, रीति-रिवाज और लोगों से सीधा संवाद स्थापित करने के उद्देश्य से मेला की शुरुआत की गई थी.एक मान्यता यह भी है कि स्थानीय गांव हिजला के आधार पर हिजला मेला का नामकरण किया गया है. वर्ष 1975 में संताल परगना के तत्कालीन उपायुक्त गोविंद रामचंद्र पटवर्धन की पहल पर हिजला मेला के आगे जनजातीय शब्द जोड़ दिया गया. झारखण्ड सरकार ने इस मेला को वर्ष 2008 से एक महोत्सव के रुप में मनाने का निर्णय लिया. 2015 में इस मेला को राजकीय मेला का दर्जा प्रदान किया गया, जिसके पश्चात यह मेला राजकीय जनजातीय हिजला मेला महोत्सव के नाम से जाना जाता है.
तीन दशक पहले तक राज्यपाल और सीएम मेले का उदघाटन करते थे
अमूमन किसी राजकीय महोत्सव या मेले के लिए आमंत्रण मिलने पर मंत्री, नेता और पदाधिकारी अतिथि बनने या फीता काटने के लिए तैयार रहते हैं.तीन दशक पहले तक राज्यपाल और मुख्यमंत्री इस मेले का उदघाटन समारोह में शामिल हुआ करते थे, लेकिन मेले के उद्घाटन के बाद राजनेताओं की कुर्सी हाथ से निकल जाने पर कई तरह की भ्रांतियां बन गई. जिसकी वजह से अब राजनेता और अधिकारी इस मेले का फीटा काटने से कतराते हैं. मेले का अब उदघाटन ग्राम प्रधान के हाथों होता हैं.
हिजला मेला में जनजातीय संस्कृति, नृत्य-संगीत का प्रदर्शन होता है
हिजला मेला विविधता से भरपूर है.जहां एक ओर जनजातीय संस्कृति, नृत्य-संगीत का प्रदर्शन होता है.वहीं दूसरी ओर भीतरी कला मंच पर दिन भर बच्चों का क्विज, भाषण, वाद-विवाद प्रतियोगिता और बुद्धिजीवियों के मध्य परिचर्चा का आयोजन किया जाता है.इसके अलावा रात्रि में कॉलेज विद्यार्थियों की ओर से पारंपारिक कथानकों का मंचन किया जाता है, साथ ही बाहरी कला मंच पर सांस्कृतिक दलों के मध्य प्रतियोगिता तथा सांस्कृतिक संध्या जिसमें राष्ट्रीय - अंतराष्ट्रीय स्तर के कलाकारों का प्रदर्शन, खेल-कूद प्रतियोगिता के साथ-साथ पुस्तक, खानपान और मनोरंजन और संबंधित दुकाने लगाई जाती है.
ऐतिहासिक मेला में चारो तरफ आदिवासी संस्कृति की झलक देखने को मिलती है
सरकार की विभिन्न योजनाओं से रुबरु कराने के उद्देश्य से विभागों द्वारा स्टॉल लगाये जाते हैं, तो किसानों को आधुनिक तकनीक से अवगत कराने के लिए कृषि, आत्मा, उद्यान और मत्स्य पदाधिकारीयों की ओर से कराया जाता है। कृषि प्रदर्शनी लोगों के आकर्षण का केंद्र बिंदु रहता है.कुछ वर्षों से शुरू जनजातीय फैशन शो मुख्य आकर्षण बनता जा रहा है.कुल मिलाकर कहें तो दुमका ही नहीं झारखंड की इस ऐतिहासिक मेला में चारो तरफ आदिवासी संस्कृति की झलक देखने को मिलती है, जिसका इंतजार लोगों को वर्ष भर रहता है.
रिपोर्ट-पंचम झा
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